जानिए विस्तार से अयोध्या में खुदाई के दौरान मिले साक्ष्य के बारे में

अयोध्या में आर्कियोलॉजिस्ट टीम जो खुदाई करने गयी थी उसके छात्रों  में एक  छात्र डॉ के के मोहम्मद भी थे पद्मश्री से सम्मानित 2012 में रिटायर हो चुके के के मोहम्मद ने खुदाई के बारे में विस्तार से सबको बताया |उन्होंने बताया कि अयोध्या में राम जन्मभूमि के मालिकाना हक़ को लेकर 1990 में पहली बार पूरे देश में बहस ने जोर पकड़ा था. इसके पहले 1976-77 में पुरातात्विक अध्ययन के दौरान अयोध्या में होने वाली खुदाई में हिस्सा लेने के लिए मुझे भी भेजा गया. प्रो बीबी लाल की अगुवाई में अयोध्या में खुदाई करने वाली आर्कियोलॉजिस्ट टीम में दिल्ली स्कूल ऑफ आर्कियोलॉजी के 12 छात्रों में से एक मैं भी था.

उस समय के उत्खनन में हमें मंदिर के स्तंभों के नीचे के भाग में ईंटों से बनाया हुआ आधार देखने को मिला. हमें हैरानी थी कि किसी ने इसे कभी पूरी तरह खोदकर देखने की जरूरत नहीं समझी. ऐसी खुदाइयों में हमें इतिहास के साथ-साथ एक पेशेवर नजरिया बनाए रखने की भी जरूरत होती है. खुदाई के लिए जब मैं वहां पहुंचा तब बाबरी मस्जिद की दीवारों में मंदिर के खंभे साफ-साफ दिखाई देते थे. मंदिर के उन स्तंभों का निर्माण ‘ब्लैक बसाल्ट’ पत्थरों से किया गया था. स्तंभ के नीचे भाग में 11वीं और 12वीं सदी के मंदिरों में दिखने वाले पूर्ण कलश बनाए गए थे. मंदिर कला में पूर्ण कलश 8 ऐश्वर्य चिन्हों में एक माने जाते हैं.

अपनी किताब में मुहम्मद ने लिखा है कि अयोध्या में हुई खुदाई में कुल 137 मजदूर लगाए गए थे, जिनमें से 52 मुसलमान थे. बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधि के तौर पर सूरजभान मंडल, सुप्रिया वर्मा, जया मेनन आदि के अलावा इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक मजिस्ट्रेट भी इस पूरी खुदाई की निगरानी कर रहा था. जाहिर है इसके नतीजों पर सवाल उठाने का कोई आधार नहीं है? ज्यादा हैरानी तब हुई जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मंदिर के पक्ष में फैसला सुनाया तो भी वामपंथी इतिहासकार गलती मानने को तैयार नहीं हुए.

इसका बड़ा कारण यह था कि खुदाई के दौरान जिन इतिहासकारों को शामिल किया गया था वो दरअसल निष्पक्ष न होकर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के प्रतिनिधि के तौर पर काम कर रहे थे. इनमें से 3-4 को ही आर्कियोलॉजी की तकनीकी बातें पता थीं. सबसे बड़ी बात कि ये लोग नहीं चाहते थे कि अयोध्या का ये मसला कभी भी हल हो. शायद इसलिए क्योंकि वो चाहते हैं कि भारत के हिंदू और मुसलमान हमेशा ऐसे ही आपस में उलझे रहें.

पद्मश्री से सम्मानित 2012 में रिटायर हो चुके के के मोहम्मद का नाम जब जब आएगा तब तब बटेश्वर के प्राचीन मंदिरों का जिक्र किया जाएगा. मीडिया रिपोर्ट से पता चलता है कि नब्बे के दशक में जब के के मोहम्मद ने पुरातत्व विभाग के तमाम नाज नखरे सह कर बटेश्वर के 200 मंदिरों के अवशेष के पास पहुंचे तब कोई नहीं कहता था कि गुप्त काल से लेकर गुर्जर प्रतिहार काल के 6 शताब्दी पुराने ये मंदिर फिर खड़े हो पाएंगे.