क्या है टाइम कैप्सूल जिसका रहस्य आज भी इंदिरा गांधी के नाम से दबा हुआ है
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के काम करने के तौरतरीकों (एक व्यक्ति केंद्रित राजनीति) में लोग कई समानताएं खोज सकते हैं. लेकिन इनके राजनैतिक जीवन की एक घटना इन तीनों के साथ विचित्र तरह का संयोग है. यह घटना ‘टाइम कैप्सूल’ से जुड़ा विवाद है.
इसमें सबसे हालिया विवाद मई, 2010 का है. उस समय नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उनकी सरकार ने गांधीनगर में बनने वाले महात्मा मंदिर की नींव में एक टाइम कैप्सूल दफन करवाया था. तीन फुट लंबे और ढाई फुट चौड़े इस स्टील सिलेंडर में कुछ लिखित सामग्री और डिजिटल कंटेट रखा गया था. सरकार के मुताबिक कैप्सूल में गुजरात के पचास साल का इतिहास संजोया गया था. कांग्रेस ने उस समय इसका काफी विरोध किया. पार्टी ने आरोप लगाया कि टाइम कैप्सूल के माध्यम से मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इतिहास में अपना महिमामंडन करना चाहते हैं. कांग्रेस ने धमकी भी दी कि वह सत्ता में आई तो कैप्सूल निकलवा देगी.
गुजरात कांग्रेस ने कैप्सूल में रखे दस्तावेजों में दर्ज जानकारी जानने के लिए राज्य सूचना आयोग में एक अर्जी भी लगाई थी. पार्टी ने बाद में दावा किया कि उसे जो जानकारी मिली है उसके मुताबिक टाइम कैप्सूल में गुजरात के इतिहास के बजाय नरेंद्र मोदी के कामों को तवज्जो दी गई है और इसमें 90 फीसदी से ज्यादा सूचनाएं नरेंद्र मोदी के बारे में हैं.
बसपा की सुप्रीमो मायावती के बारे में 2009 में यह चर्चा चली थी कि उन्होंने अपनी पार्टी और खुद की उपलब्धियों से जुड़ी हुई जानकारी के दस्तावेज एक टाइम कैप्सूल में रखवाकर कहीं दफन करवाए हैं. हालांकि इस बात की पुष्टि नहीं हो पाई लेकिन उस समय मीडिया में यह खबर सुर्खियों में थी.
टाइम कैप्सूल से जुड़ा तीसरा और भारतीय राजनैतिक इतिहास का सबसे विवादास्पद मामला पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से संबंधित है. वैसे समयानुक्रम के हिसाब से इसे देश में इस तरह का पहला मामला कहा जाना चाहिए. यह 1980 के दशक की बात है.
उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने राजनीतिक करियर के शीर्ष पर थीं. उनकी सरकार स्वतंत्रता की 25वीं वर्षगांठ को यादगार तरीके से मनाना चाहती थी. इसके लिए योजना बनाई गई कि 15 अगस्त, 1973 को लाल किला परिसर में एक टाइम कैप्सूल जमीन में दबाया जाएगा. सरकार का कहना था कि इसके भीतर रखे जाने वाले दस्तावेजों में आजादी के शुरुआती 25 सालों की उपलब्धियों का विशेष विवरण होगा, साथ ही देश के प्राचीन इतिहास से लेकर आधुनिक समय तक की उल्लेखनीय घटनाओं का जिक्र भी इसमें शामिल किया जाएगा.
इंदिरा गांधी सरकार ने इस टाइम कैप्सूल को नाम दिया था – कालपात्र. कालपात्र में भारतीय इतिहास के कौन से महत्वपूर्ण हिस्सों का विवरण रखा जाएगा इसकी जिम्मेदारी भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) को दी गई. मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर एस कृष्णास्वामी इस सामग्री को तैयार कर रहे थे. लेकिन यह योजना शुरुआत में ही बौद्धिक और राजनीतिक हल्कों में विवादित हो गई. कृष्णास्वामी ने काल पात्र के भीतर रखे जाने वाले दस्तावेजों की एक प्रति तमिलनाडु के अभिलेखागार आयुक्त और प्रसिद्ध इतिहासकार टी बद्रीनाथ को भेज दी. वे इसपर उनकी राय जानना चाहते थे. बद्रीनाथ ने सामग्री के अध्ययन के बाद खुलेआम इसकी आलोचना कर दी. उनका कहना था कालपात्र में रखे जाने वाले दस्तावेज इतिहास का गलत प्रस्तुतिकरण करते हैं. राजनीतिक हल्कों में सरकार का विरोध यह कहकर हो रहा था कि इंदिरा गांधी खुद और अपने परिवार का महिमामंडन करने वाली लिखित सामग्री काल पात्र में रखवा रही हैं.
हालांकि इस विरोध के बावजूद स्वतंत्रता दिवस के दिन काल पात्र लाल किला परिसर में जमीन के नीचे दबा दिया गया. 1977 में कांग्रेस पार्टी सत्ता से बाहर हो गई. अब देश में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. जनता पार्टी के नेताओं ने चुनाव के पहले ही यह कह दिया था कि वे काल पात्र को जमीन से निकलवाकर उसकी सामग्री का दोबारा अध्ययन करेंगे. सरकार गठन के कुछ ही दिनों बाद लाल किला परिसर से खुदाई करके काल पात्र निकलवा लिया गया. उस समय मीडिया में रहे कुछ लोगों की मानें तो सरकार ने इसमें रखे दस्तावेजों का अध्ययन किया था. इनमें कुछ का दावा है कि काल पात्र के दस्तावेजों में ज्यादातर सामग्री इंदिरा गांधी और उनके पिता जवाहरलाल नेहरू की उपलब्धियों के बारे में थी, तो वहीं एक वर्ग की राय है कि इसमें भारतीय इतिहास से जुड़े विवरण विवादास्पद नहीं कहे जा सकते. इस घटना के बारे में एक और दिलचस्प जानकारी यह है कि कालपात्र को जमीन में दबाने में कुल आठ हजार रुपये खर्च हुए लेकिन इसे बाहर निकलवाने में सरकार को 58 हजार रुपये से ज्यादा खर्च करने पड़े थे.
काल पात्र जमीन से निकाल लिया गया था इसके बारे में तो राजनीतिक इतिहासकारों को कोई शक नहीं है. लेकिन बाद में इसका क्या हुआ यह किसी को नहीं पता. यह भी साफ नहीं है कि काल पात्र में रखे दस्तावेजों में असल में क्या लिखा था.
जनता पार्टी सरकार ने भी बाद में काल पात्र के बारे में कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं की. यह मामला 2012-13 में एक बार फिर सुर्खियों में आया था. मानुषी पत्रिका की संपादक मधु किश्वर ने 2012 में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) से सूचना के अधिकार के तहत काल पात्र के बारे में जानकारी मांगी थी. इसके जवाब में पीएमओ का कहना था कि उसके पास इससे जुड़ी कोई सूचना नहीं है. किश्वर इसके बाद राष्ट्रीय सूचना आयोग भी गईं. आयोग ने पीएमओ को काल पात्र की जानकारी जुटाने का निर्देश दिया था, लेकिन आज तक इसके बारे में पीएमओ की तरफ से कोई जानकारी सामने नहीं आई.
इंदिरा गांधी सरकार ने तांबे के इस कालपात्र को जमीन से बाहर निकालने के लिए एक हजार साल की समयावधि तय की थी. सरकार का कहना था कि एक हजार साल बाद जब यह कालपात्र जमीन से निकाला जाएगा तो इसमें रखे दस्तावेज युवा पीढ़ी को उनके गौरवशाली देश के इतिहास से परिचित करवाएंगे. हालांकि यह कालपात्र चार साल बाद ही जमीन से निकाल लिया गया. लेकिन जिस प्रकार से इसको लेकर रहस्य कायम है उसे देखते हुए लगता है कि इससे जुड़ी सूचनाएं जब भी सार्वजनिक होंगीं, इतिहास के बारे में वर्तमान पीढ़ी को कुछ पता चले या न चले पिछले समय की राजनीति के बारे में जरूर बहुत कुछ पता चलेगा.